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26 February 2008

और भी गम है इक नक्सलियों के सिवा

समूचे छत्तीसगढ़ का तो पता नही पर राजधानी रायपुर में पुलिस के आला अफसर या तो नक्सली मामलों में व्यस्त लगते हैं या फिर वी आई पी सुरक्षा में। और ये वी आई पी तो बस अपने में मस्त/व्यस्त। पता नही नक्सलियों के शहरी नेटवर्क तलाशने और उन्हें तोड़ने मे जुटी राजधानी पुलिस के आला अफसरों को इस बात पर ध्यान देने की फुरसत है या नही कि थानों में आजकल स्टेशनरी खर्च तो एफ़ आई आर लिखवाने वाले से ही वसूला जा रहा है। जनाब कोई ध्यान इस बात पर भी देगा कि और भी गम होते हैं छत्तीसगढ़ में इन नक्सलियों के सिवा।

पिछले दिनों एक वाकया हुआ जिसने मुझे सोचने और फिर यह लिखने पर मजबूर कर दिया। हमारे एक युवा साथी ने मुझे एक सुबह फोन किया कि भैया हमारा घर किस थाना क्षेत्र में आता है,उसके इस सवाल पर पहले तो मैने उसे लताड़ा कि ग्रेजुएट बंदे हो और यह भी नही मालूम कि तुम्हारा घर किस थाना क्षेत्र में आता है। उसे लताड़ा फिर उससे यह पूछा कि यह जानकारी उसे क्यों चाहिए। उसने बताया कि उसके पड़ोस वाली आंटीजी का मोबाईल गुम हो गया है तो नंबर बंद करवाने के लिए सिमकार्ड गुम होने की एफ आई आर की कॉपी मोबाईल कंपनी को देनी पड़ेगी। उसे थानाक्षेत्र बताते हुए मैने जाकर एफ आई आर लिखाने की सलाह दे दी। शाम में यही बंदा जब आया तो मैने उससे एफ आई आर के बारे में पूछा। उसने बताया कि एफ आई आर लिखवाने जब वह थाने में पहुंचा तो पूरी बात सुनने के बाद लिखने से पहले मेज की दराज़ खोलकर यह इशारा किया गया कि स्टेशनरी आदि का खर्च सौ रूपए उसमें डाले जाएं तब ही एफ आई आर दर्ज की जा सकेगी। बंदे के मुताबिक वह हतप्रभ तो हुआ पर चूंकि एफ आई आर जरुरी थी इसलिए सौ रूपए स्टेशनरी खर्च के नाम पर दिया और एफ आई आर की कॉपी लिया।

तो यह तो आलम है छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के एक महत्वपूर्ण थाने का जहां एक को रिपोर्ट लिखाने के लिए सौ रुपए स्टेशनरी मद में देने पड़े। राजधानी है रायपुर जहां पुलिस के आलाकमान से लेकर राज्य के गृहमंत्री ही नही बल्कि सारी सरकार मौजूद रहती है,तो दूर-दराज़ के थानों की कार्यप्रणाली की कल्पना की जा सकती है कि वहां अनपढ़ ग्रामीणों से कैसा व्यवहार होता होगा और किस-किस मद में खर्च वसूला जाता होगा। ऐसा अनेक बार मित्रों से या अन्य लोगों से जानकारी मिली है कि थाने में रपट लिखवाने जाना भी एक बहुत मुश्किल प्रक्रिया साबित होती है,एक तो पुलिस वालों का व्यवहार-उनके बात करने का तरीका ऐसा मानों एफ आई आर लिखवाने वाला ही अपराधी हो ऊपर से स्टेशनरी खर्च भी देना पड़ता है।

आए दिन हम अखबारों में पुलिस के आला अफसरों से लेकर राज्य के (अलग-अलग कार्यकाल के अलग-अलग)गृहमंत्रियों के बयान पढ़ते रहे हैं और शायद पढ़ते ही रहेंगे कि पुलिस को आम जनता से जोड़ने के लिए मित्रवत व्यवहार के निर्देश और प्रशिक्षण दिए जाएंगे,पता नही ऐसा हुआ भी या नही लेकिन व्यवहार में तो ऐसा नज़र कभी-कभार ही आया है कि पुलिस ने मित्रवत व्यवहार किया हो। जब भी कोई नए अफसर रायपुर में पद संभालते हैं तो उनकी पहली प्रेस कांफ़्रेंस में पहुंचे पत्रकारों को तो जैसे पूर्वाभास रहता है कि नए साहब यह लाईन तो जरुर कहेंगे ही कि "पुलिस को आम जनता से जोड़ने के प्रयास किए जाएंगे और भ्रष्ट पुलिसकर्मियों को बख्शा नही जाएगा"। पता नही फिर जैसे-जैसे ये सब नए साहब पुराने होते जाते हैं अपनी ही कही यह लाईन शायद भूलने लगते हैं। यदा-कदा कुछ अफसर जरुर थानों में जाकर भेष बदलकर छापामार कारवाई करते हैं पर कितनी बार ऐसा होता है कि ऐसी छापामार कारवाई होती है और ऐसी कारवाईयों का भय पुलिस कर्मियों पर व्याप्त कितने दिन रहता है?

यह कहा जा सकता है इस तरह भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने के लिए हम नागरिक भी दोषी हैं क्योंकि हम देते हैं तभी रिश्वत ली जाती है लेकिन मुद्दे की बात यह है कि इस तरह छोटी-छोटी आवश्यक्ताओं के लिए थाने पहुंचे व्यक्ति के सामने क्या रास्ता होता है। यदि वह सौ रूपए देने से इनकार कर दे तो क्या रपट लिख ली जाएगी? रपट लिखवाना तो उसे जरुरी ही है क्योंकि उसकी कॉपी जमा किए बिना तो मोबाईल कंपनी सिमकार्ड बंद नही करेगी। तो क्या करे वह बंदा,रपट लिखवाने के लिए पहले आला अफसरों के पास जाए गुहार लगाने? मतलब यह कि इस छोटी सी रपट लिखाने के लिए या तो सौ रूपए दे ही दे या फ़िर पहले जाए इसके खिलाफ आला अफसरों के पास गुहार लगाने। अर्थात यह कि यदि आप कायदे से कोई काम करवाना चाहते हों तो अपना समय व्यर्थ बर्बाद करने को तैयार रहें नही तो जेब से पैसे ढीले करें और फटाफट समय बचाएं काम करवाएं। यह कैसी व्यवस्था विकसित की है हमने?

सवाल यह उठता है कि क्या रिपोर्ट लिखवाने के लिए भी पुलिस विभाग या राजनैतिक पहुंच का होना जरुरी है,न हो तो सौ रुपए ढीले करने ही पड़ेंगे? हमारी राज्य सरकार या पुलिस विभाग का खजाना इतना खाली हो चुका है कि एफ आई आर लिखवाने पहुंचे व्यक्ति से लिखने से पहले सौ रुपए स्टेशनरी मद में मांगे जाएं? या फिर इस तरीके से रूपए मांगे जाने को पुलिस विभाग या सरकार/प्रशासन भ्रष्टाचार नही मानता। क्या रिश्वत या वसूली के इस तरीके को अघोषित मान्यता मिल चुकी है प्रशासन/विभाग की तरफ से। इसके बाद यदि मित्रवत व्यवहार की बात अगर करें तो आम जनता से आला अफसरों का तो व्यवहार अच्छा रहता है पर अधिकांश मैदानी अमले के आमजन से व्यवहार और बातचीत करने के तरीके को देखकर लगता है कि इन्हें तो नर्सरी कक्षा में भरती कर "मैनर्स" सिखाने की जरुरत है।

12 टिप्पणी:

Anita kumar said...

महाराष्ट्रा की पुलिस को तो मेनर्स सिखाने की क्लास शुरु हो चुकी है

आभा said...

उनके हिसाब से यही मैनर है,अपने देश मे हर जगह ऐसा ही हाल है।

Lokesh Kumar Sharma said...

अरे भाई अभी भी हमारा पोलीस सिस्टम पुरा ब्रिटीश इन्डिया का है. देश तो आजाद है लेकिन पोलीस सिस्टम नही हुआ है. इसलिये देश के नागरिक के साथ अभी भी वही बरताव करते है.

आनंद said...

मोबाइल गुमने के रिपोर्ट पुलिस के पास क्‍यों लिखवाई जाती है। क्‍या पुलिस उसे बरामद कर आपको लौटाएगी (जनता के जानमाल की बरामदगी करना उसकी ड्यूटी है)? मज़ाक नहीं कर रहा हूँ। यदि प्रयास किया जाए तो कोई भी गुमा मोबाइल ट्रेस किया जा सकता है।

खैर, यही गनी‍मत है पुलिस वाले आपको अंदर नहीं कर फिरौती नहीं वसूलते, मात्र स्‍टेशनरी फीस वसूलकर रिपोर्ट की कॉपी के साथ थाने से सही सलामत लौटने देते हैं।

mamta said...

इतना खुले आम सब चल रहा है। तमीज तो जैसे ये लोग भूल ही गए है।

Sanjeet Tripathi said...

आनंद साहिब, जैसा कि उपर लिखा ही है कि सिमकार्ड गुम जाने पर एफ़ आई आर की कॉपी प्रस्तुत करने पर ही मोबाईल कंपनियां पुराने नंबर का नया सिमकार्ड इशू करती हैं।

36solutions said...

ऐसे मामले में पुलिस हस्तक्षेप अयोग्य रिपोर्ट लिखी जाती है एवं इसके लिये पुलिसिया खानापूर्ति के रूप में एक शपथपत्र प्रस्तुत की जाती है जिसके बाद ऐसे रिपोर्ट दर्ज किये जाते हैं । पर यदि हम बिना शपथ पत्र बनवाये अपना समय बचाने के मशक्कत में सौ रूपये देते हैं तो अपनी ही गलती है ।
रही बात पुलिस महकमें में व्याप्त भ्रष्टाचार की तो यह सर्वविदित है कि यही शिष्टाचार है ।

Tarun said...

हद है खुले आम लूट है ये तो

Shiv said...

प्रकाश सिंह जी ने सुप्रीम कोर्ट में (किसी छोटे कोर्ट में नहीं) एक याचिका दायर की थी. याचिका पुलिस सुधारों के बारे में थी. पंद्रह साल से ज्यादा हो चुके हैं. अभी तक एफिडेविट फाइल करने की प्रक्रिया चल रही है.

और क्या कहें पुलिस, पुलिस सुधार और पुलिस मैनर के बारे में?

Unknown said...

हम कब सुधरेगे?हम से मतलब है अगर हम भी उसी थाने मे पुलिस के पद पर हो तो ऐसा हम भी करेगे.शायद आप मे से कुछ लोग सहमत ना हो.पर यही हकिकत है.

admin said...

आपका दर्द जायज है। पर मुझे नहीं लगता कि इस व्यवस्था में कोई सकारात्मक परिवर्तन हो सकता है, जबतक कि कोई चमत्कार न हो। इसलिए हम लोग बस दुआ ही कर सकता हैं, एक ऐसे चमत्कार की, जिसका सपना हर व्यक्ति देखता है, पर उसे साकार करने की हिम्मत नहीं कर पाता।

Dr. Chandra Kumar Jain said...

POST KE SATH CHITRA BHI BEJOD...

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शुक्रिया ।